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शाकाहार और मांसाहार में कौन श्रेष्ठ


शाकाहार और मांसाहार में कौन श्रेष्ठ है यह बताना बहुत मुश्किल है क्यों की दोनों को प्राप्त करने की विधि वस्तुतः एक ही है | जहाँ तक खाने की स्वतंत्रता हैं यह पूर्ण रूप से अपना अधिकार हैं | मनुष्यों की भाती जानवर , पशु, पक्षी, वनस्पति ये सब अपना अपना भोजन चुनते हैं | 

शाकाहार : वनस्पति से प्राप्त खाद्य वास्तु , प्रायः वनस्पति की हत्या की जाती है | अपवाद : प्याज, लहसुन इतयादि जो की वनस्पति से प्राप्त होने के उपरांत भी इसको तामसी श्रेणी में रखा गया है |

मांसाहार : जंतु से प्राप्त खाद्य वास्तु , प्रायः जंतु की हत्या की जाती है | अपवाद : दूध, मध् (हनी) इतयादि जो की जंतु से प्राप्त होने के उपरांत भी इसको सात्विक श्रेणी में रखा गया है | ऐसे भी कितने ही वस्तु हैं जो की पूजा में इस्तेमाल करते हैं जैसे मृग चर्म, भेंड़ का रोम से बना कम्बल, श्रृंगी इत्यादि 

वनस्पति और जंतु में समानता : महर्षि भृगु और महर्षि कात्यायन के अनुसार ये दोनों ही समान हैं और एक दूसरे के पूरक हैं |

१. दोनों में ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और जरुरत पड़ने पर इसका इस्तेमाल करते हैं 

२. दोनों का शारीरिक बनावट भी एक ही है क्यों मूलतः हड्डी, मांस, रक्त, छाल दोनों में ही विद्यमान हैं |

३. हमारे भागवत पुराण के अनुसार इनके माता अलग अलग परन्तु पिता एक ही हैं | 

४. वर्तमान विज्ञानं के अनुसार दोनों का डी एन ए में काफी हद तक समानता हैं ( चार्ल्स डार्विन , मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट जर्मनी ) | 

हमारे पुराण के अनुसार भगवान वही ग्रहण करते हैं जो भक्त अर्पित करता हैं | भक्ति की चरम स्थिति में  शाकाहार और मांसाहार में कोई अंतर नहीं रह जाता हैं | बलि प्रथा आदि काल से हैं चाहे दधीचि ऋषि का हड्डी लेना, रावण के द्वारा अपने सर का बलि देना, अश्वमेघ यज्ञ में अग्नि को बलि देना, श्री कृष्ण द्वारा बर्बरीक का सर मांगना, भगवान इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच लेना |

दुर्गा सप्तशती की तीन श्लोकों की टीका देखें,विषय स्वतः स्पष्ट हो जायेगा।

1--गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम्।मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः।

2--बलि प्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे।सर्वं ममैतच्चरितमुच्चार्यं श्राव्यमेव च।जानताऽजानता वापि बलिपूजां तथा कृताम्।प्रतीच्छिष्याम्यहं प्रीतया वह्नहोमं तथा कृतम्।

3--तेषां किल सुरामांसैर्नोक्ता पूजा नृप क्वचित्।प्रणामाचमनीयेन चन्दनेन सुगन्धिना।।


सन्दर्भ : वाल्मीकि रामायण / अयोध्या कांड / ९१ सर्ग / श्लोक सं ७० 
यह परिस्थिति उस समय की हैं जब कुमार भरत अपने दल बल के साथ  प्रभु श्रीराम को अयोध्या लौटा लाने के लिए वन को जा रहे हैं और एक रात महर्षि भरद्वाज के आश्रम में रुके हैं | महर्षि सबके लिए यथा योग्य व्यंजन का व्यवस्था किये हैं   

*  भरत की सेना में आये हुए निषाद आदि निम्नवर्ग के लोगों की तृप्ति के लिए वहां मधु से भरी हुई बवँड़ियाँ प्रकट हो गयीं थीं तथा उनके तटों पर तपे हुए पिठर  (कुंड) में पकाये गए मृग , मोर , मुर्गों से स्वक्ष मांस भी ढेर के ढेर रख दिए गए थे | * 

यहाँ कर्मों के आधार पर व्यंजन परोसा गया था, जैसा कर्म वैसा व्यंजन  |


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